Physics in Ancient India
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गणितीय समीकरण


सामान्य (Set)
सादृश्य के बोध का कारण 'सामान्य' कहलाता है। 1
वैशेषिक दर्शन के अनुसार एक सामान्य में वे भौतिक राशियाँ सम्मिलित होती हैं जो आकार अथवा प्रकार में समानता या एकरूपता रखती है। 2
वैशेषिक आचार्यों ने सामान्य को तीन रूपों में अभिव्यक्त किया है- (१) पर-सामान्य (universal set), (२) परापर सामान्य (sub-set) और (३) अपर-सामान्य (element)। इसके अतिरिक्त वैशेषिक आचार्यों ने इनके उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं, जो क्रमश: भाववस्तु (physical quantity), द्रव (fundamental physical quantity) और घट (an earthen pot) हैं।
सामान्य के सम्बन्ध में किया गया उपर्युक्त विवेचन हमें इसके विस्तृत अध्ययन में अतीव उपयोगी सिद्ध होता है। गणित में अंकों का प्रयोग सामान्य के गठन में होता है। इनका विकास अंकगणितीय क्रियाओं जैसे-जोड़ (addition), घटाव (subtraction) इत्यादि द्वारा परापर सामान्य और अपर सामान्य के गठन में किया जा सकता है।
बीजगणितीय राशियाँ भिन्न प्रकार के सामान्यों का गठन कर सकती हैं। इन राशियों को भौतिक अर्थ प्रदान करके एवं उनको अंको से सहसम्बद्ध करके गणित का विकास किया जाता है।
हमें यह ज्ञात है कि एक समान राशियों या भौतिक राशियों को जोड़ना और घटाना तार्किक दृष्टि से सम्भव है। उदाहरणार्थ - माना एक स्थान पर ४ मनुष्य, १५ गायें और ६ भैसें हैं अर्थात् कुल २५ चेतन प्राणी और २१ जानवर हैं। प्रस्तुत उदाहरण के चेतन प्राणियों को 'पर सामान्य' की श्रेणी में रख सकते हैं, २१ जानवरों को 'परापर सामान्य' की श्रेणी में रख सकते हैं और मनुष्यों, गायों और भैसों को पृथक्-पृथक् 'अपर सामान्य' कहा जा सकता है।
इन दोनों सामान्यों में जोड़ की विधि प्रयुक्त करने पर चेतन प्राणियों की संख्या, मनुष्यों की संख्या और जानवरों की संख्या दोनों सामान्यों में उपस्थित परसामान्य, परापर सामान्य और अपर सामान्य के अंको के योग द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं।
यदि कोई अपरसामान्य किसी सामान्य में अनुपस्थित है तो इस अंतर को ध्यान में रखना होगा। बीजगणितीय रूप में इसका रूपान्तरण इस प्रकार किया जा सकता है -
S = चेतन प्राणी (sentient being)
H = मनुष्य (human being)
C = गाय (cow)
B = भैंस (buffalo)
प्रथम सामान्य (First set) = ४H + १५C+६B
द्वितीय सामान्य (Second set) = २H + ३C+५B
दोनों का योग (Sum) = ६H + १८C+११B
और दोनों का अंतर (Difference) = २H + १२C+B
यदि चेतन प्राणियों की गणना अपेक्षित हो और S एक पर सामान्य हो, तो
H = S, C = S. एवं B=S
H,C एवं B के मान को परसामान्य में प्रतिस्थापित करने पर चेतन प्राणियों की कुल संख्या
= ६S+ १८S+ ११S = ३५S = ३५ चेतन प्राणी
इसी प्रकार यदि जानवरों की संख्या ज्ञात करनी हो और । एक परापर सामान्य हो, तो C = A और B=A
अत: जानवरों की कुल संख्या = १८ A+ ११ A = २९ जानवर
विशेष (Specific)
वह कारण जिससे चरम भिन्नता का बोध होता है 'विशेष' कहा जाता है। 3
जो द्रव निरवयव अर्थात् अवयव रहित होकर भी नित्य रहते हैं, विशेष कहे जाते हैं। वैशेषिक दर्शन की केन्द्रीय अवधारणा भी 'विशेष' पर ही केन्द्रित है जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट हो जाता है। भौतिकी की दृष्टि से विचार करें तो यह स्पष्ट होता है कि जो भौतिक राशियाँ 'विशेष' अर्थात् चरम और अखण्डित लक्षणों वाली हैं द्रव (मूलभूत भौतिक राशि) कही जाती हैं। वैशेषिक दर्शन के अनुसार ये अखण्डित विभु राशियाँ 'आकाश' (plasma) दिक् (lengthvector), काल (time), आत्मा (soul) तथा पृथ्वी (solid) अप् (liquid) तेज (radiant energy), वायु (gas) एवं मन (mind) के परमाणु हैं।
जैसा कि पूर्व से विदित है कि भौतिक विज्ञान के अनुसार ठोस, द्रव, गैस और प्लाज्मा वस्तु एवं तेज की विभिन्न अवस्थायें हैं और इन्हें परस्पर एक दूसरे में परिवर्तित किया जा सकता है। इस हेतु मापनऱ्योग्य केवल एक मात़्र भौतिक राशि 'संहति' पार्थिवमान (mass) ही है, उपर्युक्त अवस्थाएँ इसी मूलभूत भौतिक राशि का प्रतिनिधित्व करती हैं।
यह 'संहति', दिक्-काल जैसे विभु पदार्थों में निवास करती हैं। अत: इनके मापन, सदिश लम्बाई और समय क्रमश: द्वितीय और तृतीय मूलभूत भौतिक राशियाँ हैं। अत: निष्कर्ष रूपेण यह कह सकते हैं कि भौतिकी में संहति (mass), सदिश लम्बाई (length) और समय (time) ही तीन मूलभूत भौतिक राशियाँ हैं।
द्रव (मूलभूत भौतिक राशि) के आधार पर 'गुण' एवं 'कर्म' का अध्ययन साधारण बीजगणितीय समीकरणों की सहायता से किया जाता है।
प्रकृत विधि के प्रयोग से अन्य समस्त भौतिक राशियों को सहज सुलभ तथा अभिव्यक्त किया जा सकता है, जिसे अधोलिखित उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया गया है -
माना, संहति = पार्थिवमान (mass) = M
लम्बाई (length) = L
और समय (time) = T
अत: क्षेत्रफल (area) = L X L=L
आयतन (volume) = L X L X L = L
गति (velocity) = L/T = LT -१ इत्यादि।
उपर्युक्त समीकरणों में दाहिने पक्ष को परिमाणात्मक सूत्र या विमा कहते हैं। प्रकृत प्रसङ्ग में यह स्मरणीय है कि समान परिमाण (dimention) या विमाओं वाली भौतिक राशियाँ परस्पर सादृश्यता (similarity) का गुण रखती हैं, इस हेतु वे एक 'सामान्य' (set) का गठन करती हैं।
समवाय (Concomitance)
समवाय 4 वह भौतिक राशि है जो असंयोगिक (nonconjunctively) रूप में आचार और आधेय के मध्य विद्यमान रहती है। यह समवाय मूलभूत भौतिक राशियों और उनके गुणों के साथ-साथ उनसे सम्बन्धित 'कर्म' के सम्बन्ध को भी अभिव्यक्त करता है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार सम्बन्ध सामान्यतया दो प्रकार के होते हैं- (क) संयोगिक (conjunctive) और (ख) समवायिक (concomitative)। दो वस्तुओं (द्रवों) के मध्य अस्थायी और क्षणिक सम्बन्ध 'संयोगिक' सम्बन्ध के नाम से जाना जाता है। नाव और नदी के मध्य का सम्बन्ध 'संयोगिक सम्बन्ध' का उदाहरण है। इसी प्रकार मूलभूत भौतिक राशि और उसके किसी सापेक्ष गुण के मध्य सम्बन्ध को 'समवायिक सम्बन्ध' कहते हैं, जैसे द्रव और गुण का सम्बन्ध।
समवाय असंयोगिक (nonconjunctive) और अनादि (eternal) सम्बन्ध है जो संयोगिक सम्बन्ध से सर्वथा भिन्न है। यह सम्पूर्ण के साथ खण्डों का, मूलभूत भौतिक राशियों के साथ 'गुण' और 'कर्म' का, अपर सामान्य के साथ 'सामान्य' का और 'विशेष' के साथ मूलभूत भौतिक राशियों का सम्बन्ध है। समवाय को भी गणितीय भाषा में अभिव्यक्त किया जा सकता है, जैसा कि अधोलिखित उदाहरण से स्पष्ट है-
किसी वस्तु से ऊर्जा (तेज) का संयोग सम्बन्धित पिण्ड में ऊष्णत्व का अनुभव प्रदान करता है, जहाँ तेज और ऊष्णत्व क्रमश: मूलभूत भौतिकराशि (द्रव) और उसका गुण है। ये परस्पर सामवायिक सम्बन्ध से सम्बद्ध होते हैं।
विवेचना (Discussion)
वस्तु के गुण 'स्पर्श' 5 (temperature) के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि इसकी तीन श्रेणियाँ हो सकती हैं-
(क) शीत (cold), (ख) गुनगुना (mingling) और (ग) ऊष्ण (hot)
जल से भरे पात्र को धीरे-धीरे गरम करने पर जल के आयतन में उतरोत्तर वृद्धि परिलक्षित होती है, ठीक इसी प्रकार पारे (Hg) को ऊष्मा प्रदान करने पर उसके आयतन में वृद्धि और ठंडा करने पर आयतन में संकुचन होता है अर्थात् न्यूनता आती है। पारे की यह ऊष्णता अथवा शीतलता ऊर्जा के समवाय के कारण है। भौतिक विज्ञान में पारे के उपर्युक्त 'प्रसार एवं संकुचन' गुण का उपयोग एक साधारण तापमापक यन्त्र, जो तापमान (स्पर्श) का मापन करता है, के निर्माण में किया जाता है।
तापमान के मापन हेतु एक इकाई की आवश्यकता होती है और इस हेतु दो मानक तापमान (standard temperature) अपेक्षित होते हैं। स्थिर ऊष्णता के अपेक्षित ऐसे दो मानक तापमान जल की अवस्था परिवर्तन की प्रक्रिया में प्राप्त किये जा सकते हैं। ये तापमान हैं- सामान्य वायुमण्डलीय दाब पर द्रव अवस्था से ठोस अवस्था परिवर्तन का प्रतिनिधि तापमान और द्रव अवस्था से वाष्पीकरण का प्रतिनिधि तापमान। ये दो बिन्दु क्रमश: हिमांक और क्वथनांक कहे जाते हैं। इन दोनों बिन्दुओं के मध्य पारे के प्रसार को अंशांकित करके एक तापमापक स्केल प्राप्त किया जाता है। तापमापक की कृशिका (capillary) 'जिसमें पारे का प्रसार होता है' पर चिह्नित उपर्युक्त दोनों बिन्दुओं (हिमांक और क्वथनांक) के मघ्य की दूरी को १०० बराबर भागों में विभक्त कर दिया जाय तो प्रत्येक भाग 1ºC के बराबर होगा। इस तापमापक का न्यूनतम चिह्न 0ºC पर होता है।

चित्र संख्या १५

उपर्युक्त विवेचना से यह स्पष्ट होता है कि ऊष्मा के संयोग से वस्तु ऊष्णता को प्रदर्शित करता है जिसे तापमापक के प्रयोग से ज्ञात किया जा सकता है। जब ऐसे किसी तापमापक को प्रायोगिक वस्तु के सम्पर्क में रखा जाता है तो तापमापक की कृशिका में पारे का प्रसार देखा जाता है, पारे का प्रसार जिस चिह्न तक होता है उसकी संख्या और तापमापक की इकाई के द्वारा प्रायोगिक वस्तु का तापमान व्यक्त किया जाता है।
जब एक ही तापमापक को भिन्न-भिन्न दो वस्तुओं के तापमान को ज्ञात करने में प्रयुक्त किया जाता है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि स्केल पर एक वस्तु का तापमान दूसरी वस्तु के तापमान से अधिक रहने पर पहली वस्तु अधिक ऊष्ण प्रतीत होती है तो दूसरी वस्तु ठंडी प्रतीत होती है।
यदि एक ही वस्तु की दो भिन्न संहतियों को समान मात्रा में ऊष्मा प्रदान करने पर भी दोनों वस्तुओं के तापमान भिन्न प्राप्त होते हैं। समान तापमान प्राप्त करने हेतु अधिक संहति वाले वस्तु के साथ अधिक मात्रा में ऊष्मा अपेक्षित होती है अर्थात् अधिक संहति वाले वस्तु के साथ ऊष्मा को अधिक मात्रा में संयुक्त करना पड़ता है। तथापि तापमान और ऊष्मा में समवाय को प्रदर्शित करने वाले वस्तु में ऊष्मा के संयोग या विभाग से तापमान में क्रमश: वृद्धि और ह्रास होता है।
उपर्युक्त प्रायोगिक प्रभावों को गणितीय रूप में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-
H = ऊष्मा, M =संहति, T = तापमान में वृद्धि
(i) संयोगिक सम्बन्ध के कारण ऊष्मा संहति के समानुपाती होती है- अर्थात् H α M
(ii) समवायिक सम्बन्ध के कारण ऊष्मा तापमान के समानुपाती होती है- अर्थात् H α T
अत: गणितीय नियमों के अनुसार H α MT या H= SMT
प्राचीन स्पर्श मापक इकाई : लिङ्क(Ancient Scale of Temperature : Link)
महर्षि भारद्वाज रचित 'यन्त्र सर्वस्व' के कुछ भाग की पाण्डुलिपि बड़ोदा स्थित राजकीय ग्रंथालय में प्राप्त होती है। इनमें एक अन्यतम खण्ड 'वैमानिक प्रकरण' है। वैमानिक प्रकरण पर बोधानन्द द्वारा लिखित टीका भी उपलब्ध है।
इस प्रकरण में विषय से सम्बद्ध अनेक प्रविधियों का वर्णन किया गया है। 6
प्रकृत प्रसङ्ग में उनमें से एक 'कर्षण रहस्य' अर्थात् विमानभेदी तकनीक है।
वायुयान के अगले सिरे पर स्थित दहन कोष्ठ में ईंधन को जलाकर तोप के गोले को इस प्रकार गरम करें ताकि इसका ताप सतासी लिंक प्रमाण हो जाए तदनंतर छड़युक्त दो चकरी वाले साधन को चलाकर क्षेपण शक्ति द्वारा शत्रुविमान पर उसे प्रक्षेपित करें तो विमान भेदन होगा। इसमें एक विशिष्ट ताप इकाई (लिंक) का उल्लेख आया है।
उपर्युक्त संकेत से ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवत: प्राचीन भारत में एक ऐसी तापमापक स्केल का प्रयोग होता था, जिसका नाम 'लिंक' था। 'लिंक' एक तकनिकी पद होने के कारण सामान्य व्यवहार में इस शब्द का प्रयोग नहीं था और इसी कारण यह शब्द अन्य उपलब्ध संस्कृत साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। तथापि 'लिंक' शब्द का अर्थ संस्कृत व्याकरण और वैशेषिक दर्शन की सहायता से सहजतया ज्ञात किया जा सकता है।
संस्कृत साहित्य में 'ल:' का अर्थ ५० है, जो हमें रोमन अंक L का स्मरण कराता है। रोमन अंक L का तात्पर्य भी ५० से है जो दोनों के समान उद्गम को दर्शाता है। अत: 'ल:' से बने 'लिंक' शब्द का तात्पर्य एक ऐसे तापमापक स्केल से था जिस पर ५० खण्ड थे। आधुनिक विज्ञान में तापमान की इकाई सेंटीग्रेड भी अपने नाम के अनुरूप समान अर्थ की द्योतक है। सेंटी का अर्थ है १०० अर्थात् सेंटीग्रेड एक ऐसा तापमापक स्केल है जिस पर खण्डों की संख्या १०० होती है।
एक तापमापक स्केल को परिभाषित करने के क्रम में तीन तथ्यों को समझना अति आवश्यक होता है। जिनमें से प्रथम दो निम्न और उच्च मानक तापमान हैं और तृतीय, इन दो निम्न और उच्च तापमानों के मध्य खण्डों की संख्या है। नाम के अनुरूप ही सेन्टीग्रेड और लिंक में खण्डों की संख्या क्रमश: १०० और ५० है।
हम यह जानते हैं कि सेंटीग्रेड स्केल हेतु निम्न और उच्च मानक तापमान समुद्र की सतह पर क्रमश: जल का हिमाङ्क और क्वथनांक हैं। परन्तु प्राचीन भारत में प्रयुक्त मानक तापमानों तक पहुंचने के क्रम में हमें दर्शन शास्त्रीय विचारधारा का भी अवलोकन करना चाहिये। जिससे प्राचीन वैज्ञानिक पद्धतियों का स्पष्टीकरण आसान हो सकता है।
वैशेषिक दर्शन के अनुसार शीतस्पर्श (coldness) और ऊष्णस्पर्श ये गुण (hotness) क्रमश: 'अप्' और 'तेज' में रहते हैं। इसके प्रतिनिधि वस्तु क्रमश: जल और स्वर्ण है। यद्यपि द्रवत्व (fluidity) 'अप्' और 'तेज' दोनों का ही समान गुण है, इस हेतु कोई भी इस निष्कर्ष को दे सकता है कि जल का हिंमाक ओर स्वर्ण का गलनाङ्क क्रमश: निम्न और उच्च मानक तापमान समझे जाते रहे होंगे। अत: लिङ्क स्केल पर जल के हिमांक और स्वर्ण के गलनाङ्क बिन्दुओं के मध्य ५० खण्ड होने चाहिए।
सेंटीग्रेड स्केल पर जल का हिमांक और स्वर्ण का गलनाङ्क क्रमश: 0º C एवं १०६२º C है, अत: तापमान में एक लिंक की वृद्धि १०६२/५० = २१.२४º C के समतुल्य होगी। इसका उपयोग हम ८७ लिंक तापमान की गणना में कर सकते हैं, जिसका उल्लेख 'यंत्र सर्वस्व' के वैमानिक प्रकरण में हुआ है। अत: ८७ लिंक तापमान ८७ x २१.२४º C ≈ ८५०º C के बराबर होगा। यदि किसी वस्तु को इस तापमान तक गर्म किया जाये तो वह सफेद चमकने लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह अनुमान उपर्युक्त उल्लेख के अनुरूप ही है। ८७ लिंक तापमान तक गर्म करने का तात्पर्य होगा गोले को चमकदार सफेद होने तक गर्म करना।
लिंक सामान्य मापन की दृष्टि से एक उच्च इकाई है इस हेतु लिंक के २४ वें भाग को एक इकाई माना जा सकता है। माना उसका मान प्रतिलिंक (PL) है, जिसका मान लगभग ०.८८५º C होगा। इस स्केल पर पानी का क्वथनांक और स्वर्ण का गलनांक क्रमश: ११३º PL और १२००º PL होगें, जब इस स्केल का शून्य जल का हिमाङ्क बिन्दु है। भरद्वाज ने अन्यत्र तापमान की अन्य इकाई कक्ष्य का उल्लेख किया है जो कि वैदिक अंक पद्धति के अनुसार १०१ भाग की है जो पारे के क्वथनांक के आधार पर है जो वस्तुत: १ लिंक का छटा (१/६) भाग है। अत: प्रलिंक, पादकक्ष्य के तुल्य है।
उपर्युक्त तथ्यों को चित्र क्रमांक १६ में सरलता से दर्शाया गया है। तापमान के प्रतिरूपण (conversion) के लिए सम्बन्ध इस प्रकार लिखा जा सकता है-
c/१०० = PL/११३ = L/४.७०८३


तापमान स्केलों की तुलना
आधुनिक वैज्ञानिक डिग्री सेंटीग्रेड पद्धति (१/१००) प्राचीन भारतीय डिग्री लिङ्क पद्धति (१/५०)
स्वर्ण का गलनांक(melting point of gold) १०६२º C १२००º PL = ------- ५०º L
जल का क्वथनांक(boiling point of water) १००º C १११º PL
बर्फ का गलनांक(melting point of ice) 0º C 0º PL -------- 0º L
परम शून्य(absolute zero)२७३º C -३०८º PL
पारद का क्वथनांक(boiling point of mercury) ३५७.५º C


संकेत चिह्न- = सेंटीग्रेड, L = लिंक, PL = प्रलिंक
प्रतिरूपण- १º L = २१.२४º C
१º L = २४º PL = २४ पादकक्ष्य
१º PL १º पादकक्ष्य = ०.८८५º C
प्रकृत प्रंसग में प्रलिङ्क पादकक्ष्य का समावेश लेखक ने एक विशिष्ट प्रयोजन से किया है। मापन की C.G.S पद्धति में वैज्ञानिक कार्य के लिए ऊष्मा के परिमाण को 'कैलोरी' से परिभाषित किया गया है। एक कैलोरी ऊष्मा की वह मात्रा है जो एक ग्राम जल का तापमान १ ºC बढ़ाने में प्रयुक्त होती है, जहाँ जल की विशिष्ट ऊष्मा तक मानी गयी है।
इसलिये,
ऊष्मा = १ ग्राम x१º सेंटीग्रेड
=१ कैलोरी
इसी प्रकार हम प्राचीन भारतीय पद्धति में ऊष्मा की इकाई को परिभाषित कर सकते हैं-
ऊष्मा = १ माष x १º PL (पादकक्ष्य)
= १.१३ ग्राम x ०-८८५º C
= १ कैलोरी
यह मान दोनों पद्धतियों में ऊष्मा की इकाई की समतुल्यता को प्रदर्शित करता है। अत: यह स्पष्ट है कि समीकरण-
H = SMT
दोनों पद्धतियों हेतु समान रूप से प्रभावी होगा, जहाँ 'S' वस्तु की विशिष्ट ऊष्मा है जिसका आंकिक मान दोनों पद्धतियों में समान ही होगा। इस प्रकार उपर्युक्त गणितीय समीकरण वस्तु और तापमान के साथ ऊष्मीय ऊर्जा के सम्बन्ध को व्यक्त करता है। तापमान की ऊष्मा के साथ समवायता भी इस सम्बन्ध से स्पष्ट होती है।
अभाव (Absence)
वैशेषिक सूत्रकार महर्षि कणाद ने पदार्थों के परिगणन में अभाव को शब्दत: सम्मिलित नहीं किया है तथापि सूत्रों एवं विचारधारा की प्रकृति को जानने के उपरान्त अभाव वस्तु वैशेषिकों को मान्य नहीं था, नहीं कहा जा सकता। वैशेषिक सूत्र के भाष्यकार प्रशस्तपाद ने अभाव पदार्थ का महत्वपूर्ण व्याख्यान किया है। क्योंकि केवल गणितीय सम्बन्धों को देखने मात्र से ही सम्बन्धित भौतिक राशियों के मध्य सम्बन्धों पर कोई प्रकाश नहीं डाला जा सकता। केवल अभाव का निरूपण ही भौतिक राशियों के मध्य सम्बन्ध की प्रकृति का निर्धारण करता है चाहे वह संयोगिक सम्बन्ध हो अथवा समवायिक सम्बन्ध हो।
प्रशस्तपाद के अनुसार अभाव के दो भेद हैं- 7
(i) संसर्गाभाव (Absence of Relation)
(ii)अन्योन्याभाव (Absence of Identity)
ऊष्मीय ऊर्जा में शीतलता का अनुभव न होना, संसर्गाभाव कहा जाता है और सांयोगिक पदार्थों के मध्य एकात्मता का अनुभव होना अन्योन्याभाव है।
वैशेषिक सूत्र के भाष्यकार प्रशस्तपाद ने संसर्गाभाव के सम्बन्ध में अधोलिखित विचार प्रस्तुत किया है। 8
प्रशस्तपाद के अनुसार संसर्गाभाव का निम्न विभागों में विभाजन किया जा सकता है-
(अ) प्रागभाव (Antecedent Absence)
(ब) प्रध्वंसाभाव (Consequent Absence)
(स) अत्यन्ताभाव (Absolute Absence)
(अ) प्रागभाव (Antecedent Absence)
कारक के अस्तित्व में आने के पूर्व के अभाव का प्रभाव, प्रागभाव है। जैसे मिट्टी में मिट्टी के बर्तनों का अभाव।
(ब) प्रध्वंसाभाव (Consequent Absence)
कारक के अस्तित्व के व्यतीत होने के उपरान्त अभाव का प्रभाव, प्रध्वंसाभाव है। जैसे मिट्टी के पात्र के खण्डित होने के पश्चात मिट्टी के पात्र का अभाव।
(स) अत्यन्ताभाव (Absolute Absence)
पूर्वगामी, मध्यवर्ती तथा अनुवर्ती इन समस्त दशाओं का अभाव अत्यन्ताभाव है। इसे न उत्पन्न किया जा सकता है और न ही यह नश्वर है। किसी राशि का अत्यन्ताभाव वहाँ होता है जहाँ विपरीत राशि का अस्तित्व ही न हो, जैसे ऊष्मीय ऊर्जा में शीतलता का अभाव।
इस प्रकार अभाव का विवेचन करने के पश्चात् गणितीय समीकरण H = SMT को अभाव के संदर्भ में समझा जा सकता है।
(i) संसर्गाभाव (Relational Absence)
(ii)प्रागभाव - ऊष्मीय ऊर्जा के वस्तु के संयोग में आने से पूर्व तापमान में वृद्धि का अभाव प्रागभाव है। अर्थात् यदि ऊष्मीय ऊर्जा शून्य के बराबर हो, तो
0 = SMT
प्रकृत समीकरण में जब H = 0 है तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि संहति (mass) शून्य है। ऊष्मा का वस्तु से संयोग नहीं हुआ है इस हेतु T = 0 है, अर्थात् तापमान में वृद्धि शून्य है अथवा तापमान में वृद्धि का अभाव है।
(ब) प्रध्वंसाभाव (Consequent Absence)
हम देखते हैं कि ऊष्मा की H मात्रा तापमान में T वृद्धि करती है और यदि वस्तु को और अधिक ऊष्मा प्रदान न की जाय तो तापमान में अधिक वृद्धि परिलक्षित नहीं होती।
अर्थात् जब तापमान में वृद्धि के कारक ऊष्मा का संयोग समाप्त करते हैं तो तापमान में अनुवर्ती वृद्धि का प्रभाव नहीं देखा जाता, तात्पर्य यह है कि तापमान में वृद्धि (प्रभाव) का अभाव दृष्टिगोचर होता है। इसे ही प्रध्वंसाभाव कहते हैं।
(स) अत्यन्ताभाव (Absolute Absence)
पूर्वोक्त समीकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऊष्मा में वृद्धि के साथ ही तापमान में वृद्धि होती है जो ऊष्णता में वृद्धि होने का सूचक है न कि शीतलता में वृद्धि का। दूसरे रूप में इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि यहाँ शीतलता में वृद्धि का अभाव अत्यन्ताभाव है।
(ii) अन्योन्याभाव (Identitive Absence)
जब तक वस्तु की भौतिक अवस्था स्थिर है और जहाँ तक ऊष्मा और वस्तु की मात्रा का प्रश्न है, ऊष्मा और वस्तु परस्पर एक दूसरे से सर्वथा पृथक् रहते हैं, क्योंकि ऐसे समय न तो संहति (mass) ऊष्मीय ऊर्जा में परिवर्तित होता है और न ही ऊष्मीय ऊर्जा द्रवमान में। ऐसी परिस्थिति में ऊष्मा, संहति नहीं है और न ही संहति, ऊष्मा ही होती है। अर्थात् ऊष्मा का द्रवमान में अन्योन्याभाव रहता है या विपरीत रूप से, द्रवमान का ऊष्मीय ऊर्जा में अन्योन्याभाव है।
अत: अन्त में विषय का उपसंहार करते हुए हम यह कह सकते हैं कि एक गणितीय समीकरण 'सामान्य' 'विशेष' 'समवाय' और 'अभाव' को व्यक्त कर सकता है। इस पद्धति के आश्रय से भौतिक विज्ञान परिमाणात्मक रूप से और अधिक यथार्थता के साथ अभिव्यक्ति प्रदान कर सकता है।
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References
1
प्रशस्तपाद, -भाष्य, सामान्य लक्षण,
न्यायकन्दली टीका, (६०० ई. पू.),
"अनुवृत्तिप्रत्ययकारणत्वं सामान्यत्वमिति।"
2
नारायण गोपाल डोंगरे, 'वैशेषिक सिद्धान्तानां गणितीय पद्धत्या विमर्श:, पृष्ठ १०४,
"आकार प्रकारैक्य-साधर्म्यादिबोधकारणीभूता
या जाति: सा सामान्य पदेन व्यपदिश्यते।
व्याप्यत्वव्यापकत्वादिना सामान्यस्य
वैशेषिकदर्शने त्रयो भेदा: सामाम्नाता: सन्ति।
१. परं, २. अपरं, ३. परमपरं चेति।
सामान्येषु परत्वापरत्वपरापरत्वानां गमकानि
तेषां व्याप्यत्व-व्यापकत्व-व्याप्य व्यापकत्वानि
समभ्युपगम्यन्ते। सत्ताया: व्यापकत्वात्तस्य
परत्वं, घटत्वस्य व्याप्यत्वात्तस्यापरत्वं,
द्रव्यत्वस्य व्याप्यत्वे सति
व्यापकत्वात्परापरत्वं चावगम्यते। साधर्म्यवहां
समानजातीयानां पदार्थानां योग: अन्तरं च भवितुमर्हति।"
3
१) प्रशस्तपाद, -भाष्य, न्यायकन्दली टीका, (६०० ई. पू.),
"अत्यन्त व्यावृत्ति बुद्धिहेतुर्विशेष इति।"
२) नारायण गोपाल डोंगरे, 'वैशेषिक सिद्धान्तानां गणितीय पद्धत्या विमर्श:, पृष्ठ १०५,
"विशेषोयं सामान्यात् सर्वथा प्रतीपो पदार्थविशेषोऽस्ति
विशेषास्य वैशिष्ट्यादेवास्य दर्शनस्य (वैशेषिक दर्शनस्य)
वैशेषिक इति नाम्नाभृशमन्वर्थकत्वं संजुषते।
यद् द्रव्यं निरवयवत्वाधारेण नित्यमस्ति तस्य वैशिष्ट्यं
हि विशेष इति सम्प्रति सम्प्रतिपद्यते। निरवयवा
एतादृशा: पदार्था: आकाश काल दिगात्मान:
पृथिव्यप्तेजोवायूनां परमाणव: मनश्च।"
4
प्रशस्तपाद भाष्य, (६०० ई. पू.),
श्रीधर, न्यायकन्दली टीका,
"अयुतसिद्धयोगाश्रयाश्रयिभाव: समवाय इति।
एषस्समवाय: तन्निष्ठगुणकर्मणां
चाधाराधेयभावमूलकं सम्बन्धं स्फुटीकरोति।
वैशेषिकमतानुसारेण सामान्यतया द्वौ सम्बन्धौ
परिज्ञायते, तौ च संयोग: समवायश्चेति।
वस्तुद्वयस्यास्थायितया तात्कालिक:
मिथस्सम्बन्ध: संयोगशब्देन व्यपदिष्यते।
सम्बन्घोऽयं संयोग: क्षणिकोऽनित्यश्च भवति,
यथा वा तरी-नद्योस्सम्बन्धसंयोगत्वेन
प्रतिपादितोऽस्ति। आधाराधेय भूतेषु पदार्थद्वयेषु
संयोगोऽयं गुणत्वेन तिष्ठतीति कृत्वा
संयोगसम्बन्ध: युतसिद्धो भवति।"
5
प्रशस्तपाद, -भाष्य, गुणवर्णन, (६०० ई. पू.)
"शीतोष्णानुष्णाशीतभेदेन स्पर्शस्त्रिविध:।"
6
महर्षि भरद्वाज, कर्षणरहस्य, वैमानिक प्रकरण,
यंत्रसर्वस्व, (८०० ई. पू.)
"वैश्वानरनालान्तर्गत विमानाभिमुखस्थ
ज्वालिनीं प्रज्वालनं कृत्वा
सप्ताशीतिलिंकप्रमाणोष्णं यथा भवेत् तथा
चक्रद्वयकिलीचालनात् वर्त्तुलाकारेण
तच्छक्तिप्रसारणद्वारा शत्रुविमानोपरि
शत्रुविमाननाशनक्रियारहस्यम्।"
7
प्रशस्तपाद, -भाष्य, अभावनिरूपण, (६०० ई. पू.)
"अभावो हि द्विविध: समाख्यातोऽस्ति।
(१) संसर्गाभाव:, (२) अन्योन्याभावश्चेति।
वस्तुन: संसर्गाभावमूलकस्तदभाव: संसर्गाभाव:, यथा
तेजो द्रव्ये शीतसंसर्गाभावमूलक: शीतस्पर्शस्याभाव:।
एकत्र वस्तुनि वस्त्वन्तरस्य तादात्म्याभावमूलक: इदमिदं
न भवति इति प्रतीतिसाक्षिकोऽभावोऽन्योन्याभाव:। यथा
तेज: पृथ्वी न भवति, पृथ्वी तेजो न भवति
इत्यादिप्रतीतिसाक्षिकोऽभाव:।"
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प्रशस्तपाद, -भाष्य, अभावनिरूपण, (६०० ई. पू.)
"संसर्गाभावस्त्रिविध:, प्रागभाव:, प्रध्वंसाभाव:, अत्यन्ताभावश्चेति।
(१) प्रागभाव: - कार्यद्रव्योत्पत्ते: पूर्वं कारणद्रव्ये
कार्यद्रव्यस्याभाव:, प्रागभाव:। यथा-मृत्तिकायां घटाभाव:।
(२) प्रध्वंसाभाव: - कार्यद्रव्ये नष्टे सति तत्
कार्य-द्रव्यस्याभाव: प्रध्वंसाभाव:। यथा घटे नष्टे सति घटस्याभाव:।
(३) अत्यन्ताभाव: - अन्तं पूर्वां उत्तरां कोटिं च अतिक्रान्तो
योऽभाव: सोऽत्यन्ताभाव:। प्रागभावस्य पूर्वकोटिहीनस्यापि
उत्तरा कोटिर्भवति, प्रध्वंसस्य उत्तरकोटिहीनस्यापि
पूर्वकोटिर्भवति, किन्तु अत्यन्ताभावस्य कापि कोटिर्न भवति,
सोऽजन्योऽविनाशी च। अयं तत्र स्थाने भवति, यत्र तस्य
प्रतियोगी कदाऽपि न तिष्ठति। यथा शशे श्रृंगस्याभाव:,
तेजसि शीतस्य वाऽभाव:।"
संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंञालय, भारत सरकार